Thursday, July 19, 2012

Monday, July 02, 2012

अपनी अपनी सी पगडण्डी

ये डरी डरी सी पगडण्डी,
इन खेतों में अनजानी सी,
निकली है राह बनाने को,
इक ठौर यहीं इक ठौर कहीं।

नदिया सी दिखती ये बहती,
पर नहीं कहीं मिट जाने को,
ये राह है ढूंढें बड़ी राह,
और भटकों को घर लाने को।

मिट्टी में लिपटी धूल धूल,
उबड़ खाबड़ दुबले तन सी,
बस आशाएं लेकर चलती,
बल रखती है अपनी माँ सी।

अपने हों या हों अनजानें,
आते हों या फिर हों जाते,
घर के चौबारों से निकले,
ये ढोती स्वप्न हजारों की,
फिर भी डरती सी पगडण्डी,
अपनी सी लगती पगडण्डी।