क्या रच के बनाई है तकदीर मेरे मौला,
मेरा अक्स भी आईने में दिखे एक तस्वीर मेरे मौला।
जिसे खुद अपने ही भुला बैठे हों, उससे ये दोस्ती कैसी?
क्या लिखूं तुझको भी कोई तहरीर मेरे मौला?
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शहरों में अक्सर घर बेच कर मकान लिया करते हैं,
कुत्ते बिल्लियों में इंसान लिया करते हैं।
रिश्ते तो बस अब हंसने पीने की ख्वाहिश है,
खंजर तो अब तोहफों में दिया करते हैं।
हम वहीँ हैं, बस दुनिया बदली सी लगती है,
आखिर चश्मे भी तो दुकानों से लिया करते हैं?
पुरानी दोस्ती की एक नई फोटो अक्सर
नई फोटो में कुछ पुराने लोग
नए संग में कुछ पुरानी यादें
पुरानी यादों से निकले कुछ नए ख्वाब
ख्वाबों की ताबीर को कुछ नए कदम
नए कदम, पर वही पुरानी सड़क
पुरानी सड़क में कुछ नए मील के पत्थर
खुदा के नाम पर हमें लूटते रहे
ज़र्रे ज़र्रे में था, हम बस ढूंढते रहे
बिछायी ज़िन्दगी यूँ कि हम फैलते दिखें,
सिमट से रह गए हैं वक़्त, हम बस रूठते रहे
कुछ बूढ़े हो चले पर, हम में भी कभी चार्म था
मोस्ट्ली केयरिंग थे, पर कुछ कुछ कभी हार्म था
हैफ़ेज़ार्ड सी ज़िन्दगी थी, फिर भी एक नॉर्म था
घर अपना था फिर भी लगता एक डोर्म था
दोस्तों के बियर के संग चाय मेरा वार्म था
सोते अपने मर्ज़ी से थे पर जगाता अलार्म था
अब मुस्कुराते हैं, कैसे थे कैसे हो चले हैं,
रोल छोटे छोटे सही, पर बड़ा बड़ा काम था
हज़ारों बार निकले हैं इसी गंज से, ऐशबाग़ से
चौक दूजा घर ही था, स्कूल, क़ैसरबाग़ से
बाग़ आलम से निकल जाते थे अमीनाबाद को
जब किताबों के लिए, रुके कुल्फी प्रकाश को
तहज़ीब क्या है ये पता शायद पढ़ाया था नहीं
झुक के मिलते ज़रूर थे, अजनबी पहले आप से
लखनवी क्या हम हैं? मालूम आजतक मुझको नहीं,
शर्मा या टुंडे है, सुना देखा पर रुक के खाया नहीं
लखनऊ बाज़ार है ऐसा कभी सोचा न था, पर यूँ कहूँ -
है दर्द जब जब हुआ इस शहर-ए-सुखं को जब कभी,
महसूस रग रग में हुआ है, इक दिल-इ-बर्बाद से
तुम्हारी दौर में हूँ, इसलिए ग़ुमनाम हूँ यूँ बस,
कुछ लोग तब भी हैं, जिन्हें मैं याद आता हूँ
तुम्हारे नाम के जलसे लगा करते हों शहरों में,
मैं हूँ जो क़स्बों में बुलावे बाँट आता हूँ