Thursday, December 27, 2012

सुनो फिर इक और शेर

हर रोज़ की ख़लिश है हर रोज़ है अज़ीयत,
चला चलता हूँ सोच के ये बंदिश-ए-मशीयत।
बंधा सा बैठा हूँ खुद के बनाये कमरों में,
करूँ तो क्या करूँ अब तुझसे भी शिकायत?