Sunday, April 30, 2023

बस ऐसे ही

मुखौटा लगा कर जी रहा हूँ मैं,
आदत यूँ पड़ी है कि मुखौटा बन गया हूँ मैं 


Wednesday, April 12, 2023

वही पुरानी कहानी

दो बेटे थे, पिता की  दुकान थी, बाजार में अच्छी चलती थी, सभी इर्षा करते थे| बेटों की शादियां हुईं, उनके बच्चे भी बड़े होने लगे| बहुएँ बाकी दुकानदारो के परिवार के साथ उठने बैठने लगीं| पिता की तबियत ख़राब रहने लगी| कभी बच्चों की पढ़ाई कभी तबियत की वजह से बेटे दुकान में ना बैठ पाते थे| आपस में झिकझिक होने लगी| घूमने के लिए रक्खा पैसा घर के कामों के लिए लगने लगा| बहुएँ कुछ अपने को छोटा महसूस करने लगीं, पार्टियों से दूरी रहने लग गयीं. बाकी दुकानदारों के परिवार का घर में आना जाना बढ़ गया| कुछ केवल छोटी बहु से मिलतीं तो कुछ बड़ी बहु से| चाय नाश्ता भी अलग बनने लगा| अब रात का खाना भी लोग अलग अलग समय करने लगे, अक्सर  अपने कमरे में ही| सोशल प्रेशर की वजह से दुकान अलग अलग कर दिया| भाई भाई अलग हो गए| दोनों परिवार अब अपने पिता से अमीर थे पर उनकी बाज़ार में साख चली गयी|

Motto of the story is - अपनी छोटी परेशानियों में अगर बाहर वाले इन्वॉल्व होंगे तो केवल घर ही टूटेगा| 




Friday, April 07, 2023

रिश्ते

 

रिश्तों की लाश पर उगता पेड़ अक्सर हरा ही होता है
पर सोना मिट्टी में चुपड़ा भी, खरा ही होता है
पानी बेझिझक बहता तो केवल बाढ़ लाता है
प्यासे के मगर एक पास केवल घड़ा ही होता है

 

 

Saturday, April 01, 2023

बस ऐसे ही

 मुड़े होने से पन्नों पर लिखावट कम नहीं होती
अपने हैं सभी फिर भी, शिकायत कम नहीं होती
कितने भूल करते हम, न जाने क्यों भटकते हैं?
अँधेरा हो भी मस्जिद में, इनायत कम नहीं होती|


Friday, March 31, 2023

बस ऐसे ही

पुरानी दोस्ती की एक नई फोटो अक्सर
नई फोटो में कुछ पुराने लोग
नए संग में कुछ पुरानी यादें
पुरानी यादों से निकले कुछ नए ख्वाब
ख्वाबों की ताबीर को कुछ नए कदम
नए कदम, पर वही पुरानी सड़क
पुरानी सड़क में कुछ नए मील के पत्थर

Friday, February 24, 2023

बस ऐसे ही

बरसाती पानी से हैं कुछ, फूली फूली दीवारेँ 

खिड़की कम हैं परदे ज्यादा, बिछी हुई हैं अख़बारें 

पथरीली आँखों के पीछे छिपे हुए हैं सपनो सी,

शब्दकोष में बिछड़ गए हैं उम्मीदों की बौछारें |

 

कहना जो है मालूम सबको, जो बैठे जो सुनते हैं 

वो ना पूछें, जो सोचा है, खिंची आँखों की तलवारें 

ये घर है, है वही पुराना, समय है केवल बदला सा,

अपने अपने व्यूह में फँस कर अभिमन्यु है थक हारे|



Monday, December 19, 2022

एक और सुनो

एक मनुष्य था उसकी आँखें थीं
कुछ  सपने थे कुछ साहस था
कुछ कदम थे उसको चलने,
कभी धुप रही कभी पावस था|  


जीवन भट्टी में झोंक दिया,
तप कर, निखर के आने को
सोना था या पानी भाप बना,
कुछ करने का दुस्साहस था| 


कुछ लोग मिले कुछ बिछड़े भी,
कोई संग चला, कोई नाविक था
अपना अपना एक स्वर्ग बना
दोनों बाहों में भरता था| 


जब आँख खुली तो सपने थे
कुछ टूटे, कुछ अँगारों में,
पर अब भी देख सकता था वो,
उस अंतर्मन की आँखें थीं,
वो मनुष्य था उसकी आँखें थी|