एक मनुष्य था उसकी आँखें थीं 
कुछ  सपने थे कुछ साहस था 
कुछ कदम थे उसको चलने,
कभी धुप रही कभी पावस था|   
जीवन भट्टी में झोंक दिया,
तप कर, निखर के आने को 
सोना था या पानी भाप बना,
कुछ करने का दुस्साहस था|  
कुछ लोग मिले कुछ बिछड़े भी,
कोई संग चला, कोई नाविक था
अपना अपना एक स्वर्ग बना 
दोनों बाहों में भरता था| 
जब आँख खुली तो सपने थे 
कुछ टूटे, कुछ अँगारों में,
पर अब भी देख सकता था वो,
उस अंतर्मन की आँखें थीं,
वो मनुष्य था उसकी आँखें थी|  
 
 

 


