Wednesday, September 01, 2010

फिर से एक शेर

जो राहें छोड़ आगे चल दिए वो याद आते हैं,
वो यादों के परिंदे फिर से वापस लौट आते हैं।
वो धूप जो आक़र आँख को कस के जलाती थी,
थपेड़े ठण्ड के सह के अब हमें फिर से बुलाते हैं।
हवा भी रूह को मेरे बर रोज तार-तार करती है,
जो मरहम नींद के थे अब हमे रातों सताते हैं।

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