आया ज़माना याद, वो सेवैयाँ लाजवाब।
पैर छूते मिलती थी ईदी, हम भी कहते थे आदाब।
गले मिलना बना रहता था सुबह दूध की घोसी तक,
झुकते थे सर हमारे, बड़े रखते थे उस पर हाथ।
न सोचा वो थे मुसल्मा हम हिन्दू बच्चे शादाब,
क्यूँ खो गए वो दिन, कहाँ खो गयी वो चाँद रात?
Tuesday, August 30, 2011
ईद मुबारक़
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