Sunday, May 17, 2009

इक शेर

आवाजें दूर की गुजरां करें मेरे कानो के साए से,
सुनाई कुछ भी ना दे बस जगाती हैं इक आहट सी।
पुकारें चुप सी रहती हैं लगे बहती आखों से किसी के,
बुलाते खींचते अपनी तरफ़, ये धागे गुम हवाओं सी।
कि आजा पास अब ये दूरियां नागवार होती हैं,
करें क्या? बंधीं हैं बेड़ियों सी नागिनें पैरों में चाहत सी।
कहाँ जायें किधर जायें किधर जायें कहाँ जायें?
ये राहें काटती पैरों को, बुला के पास काटों सी।

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