दिखूं ख़ुद को जो शीशे में हैरानी आन होती है,
लगे बदला सा ये चेहरा, या फिरे नज़रें ही मेरी हैं?
ये धब्बे आँख के जैसे कहें कुछ नयी कहानी है,
या यादें हैं पुरानी वो, बस पलकों पे आनी हैं?
बरस के जा चुके बादल लगें मेरे खुले गेसू,
जमा आंखों के गड्ढों में, क्या ये पीने का पानी है?
Sunday, September 06, 2009
फ़िर से एक शेर
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