Saturday, June 25, 2016

इक और सुनो

मुलाहिज़ा फरमाइए -
मेरी ख़ामोशी को इंकार समझ बैठे,
इक बार तो आँखों में उतर कर देखा होता।


Tuesday, June 21, 2016

ये लखनऊ है जनाब

कुछ बदली बदली शाम थी,
नई दुकान पर पुरानी मकान थी,
पसीनो में कार पर साइकिल की शान थी,
बदले हुए चेहरों के बीच ये वही अवध-ए-शाम थी।

ऑटो में शायरी पर टांगों पे नवाब थे,
जूतों से ज्यादा बाटा के दुकान थे,
टुंडे कबाब के साथ रोटी भी रुमाल थे,
लखनऊ की शान में लोगों के जमाल थे।