हज़ारों बार निकले हैं इसी गंज से, ऐशबाग़ से
चौक दूजा घर ही था, स्कूल, क़ैसरबाग़ से
बाग़ आलम से निकल जाते थे अमीनाबाद को
जब किताबों के लिए, रुके कुल्फी प्रकाश को
तहज़ीब क्या है ये पता शायद पढ़ाया था नहीं
झुक के मिलते ज़रूर थे, अजनबी पहले आप से
लखनवी क्या हम हैं? मालूम आजतक मुझको नहीं,
शर्मा या टुंडे है, सुना देखा पर रुक के खाया नहीं
लखनऊ बाज़ार है ऐसा कभी सोचा न था, पर यूँ कहूँ -
है दर्द जब जब हुआ इस शहर-ए-सुखं को जब कभी,
महसूस रग रग में हुआ है, इक दिल-इ-बर्बाद से
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