क्या रच के बनाई है तकदीर मेरे मौला,
मेरा अक्स भी आईने में दिखे एक तस्वीर मेरे मौला।
जिसे खुद अपने ही भुला बैठे हों, उससे ये दोस्ती कैसी?
क्या लिखूं तुझको भी कोई तहरीर मेरे मौला?
Disclaimer: Thoughts expressed are mine and my only. Why would it be anybody's else? Anyone using the blogs without citing my name is liable for legal action. इस ब्लॉग में सभी पोस्ट्स मेरी स्वयं की रचनाएँ हैं जो कोम्मोंस कॉपीराईट द्वारा सुरक्षित हैं। जो उद्धहरण दूसरों से लिए गए हैं वह या तो कोटेड हैं या उनके मूल रचनाकारों या प्रोडक्ट्स के नाम उद्धत हैं।
शहरों में अक्सर घर बेच कर मकान लिया करते हैं,
कुत्ते बिल्लियों में इंसान लिया करते हैं।
रिश्ते तो बस अब हंसने पीने की ख्वाहिश है,
खंजर तो अब तोहफों में दिया करते हैं।
हम वहीँ हैं, बस दुनिया बदली सी लगती है,
आखिर चश्मे भी तो दुकानों से लिया करते हैं?
सब रोते हैं तुम्हारे जाने के बाद
छुप छुप कर, मैं भी
फूट ना पड़ें, इसलिए बात नहीं करते
पापा भी रोते थे, छुप छुप कर
कभी सामने नहीं
अब पापा भी नहीं हैं
मिली होगी ना?
क्या कहते हो एक दुसरे से?
गुस्सा करती हो? अभी भी?
मुझ पर क्यों नहीं किया?
मतलबी क्यों नहीं थी तुम?
मेरी तरह, छुप छुप कर?
Posted by
Ashish
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8:21 PM
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दो बेटे थे, पिता की दुकान थी, बाजार में अच्छी चलती थी, सभी इर्षा करते
थे| बेटों की शादियां हुईं, उनके बच्चे भी बड़े होने लगे| बहुएँ बाकी
दुकानदारो के परिवार के साथ उठने बैठने लगीं| पिता की तबियत ख़राब रहने लगी|
कभी बच्चों की पढ़ाई कभी तबियत की वजह से बेटे दुकान में ना बैठ पाते थे|
आपस में झिकझिक होने लगी| घूमने के लिए रक्खा पैसा घर के कामों के लिए लगने
लगा| बहुएँ कुछ अपने को छोटा महसूस करने लगीं, पार्टियों से दूरी रहने लग
गयीं. बाकी दुकानदारों के परिवार का घर में आना जाना बढ़ गया| कुछ केवल छोटी
बहु से मिलतीं तो कुछ बड़ी बहु से| चाय नाश्ता भी अलग बनने लगा| अब रात का
खाना भी लोग अलग अलग समय करने लगे, अक्सर अपने कमरे में ही| सोशल प्रेशर
की वजह से दुकान अलग अलग कर दिया| भाई भाई अलग हो गए| दोनों परिवार अब अपने
पिता से अमीर थे पर उनकी बाज़ार में साख चली गयी|
Motto of the story is - अपनी छोटी परेशानियों में अगर बाहर वाले इन्वॉल्व होंगे तो केवल घर ही टूटेगा|
Posted by
Ashish
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10:37 AM
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