आसां हो ज़िन्दगी तो क्या मज़ा है जीने में?
क्या लुत्फ़ है ख़ुद अपना ही अश्क पीने में।
उड़ा के ले गई ये कश्मकश बदन के पानी को,
सीने का ज़हर उतरता है अब मेरे पसीने में।
दवा अब क्या करे ये इक अंगूरे ज़हर?
उतरा करें जो खंज़र हजारों, हमारे सीने में।
Friday, February 09, 2007
एक शेर मुलाहिज़ा फरमाइए
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