Tuesday, December 06, 2011

एक और शेर

ये धुंध और कम्बल में सिहरते लोग सोते किनारे,
चौराहों में लोग पीते हुए चाय, और वो भटकते रिक्शे वाले,
दूर से लाल बत्तियां चीरती निकलती रौशनी को काटते हुए,
वो छोटी सी बच्ची मांगती भीख आधी नंगी अपनी माँ के सहारे,
उन गलियों सड़कों की कहानी आज भी याद आती है,
और इस धुंध में लिपटी अपनी लखनऊ अब भी रुलाती है।

*Picture - courtesy Lucknow page on facebook

1 comment:

Vandita said...

जाने कब हो मयस्सर, दीदार लखनऊ का इकरार लखनऊ का,
इसरार लखनऊ का एहसास उनको क्या हो, शामे अवध की जन्नत देखा नहीं जिन्होने बाज़ार लखनऊ का
एक मोड़ पर किसी से, मिलने की बेकरारी याद आया मुझको वो दर, हर बार लखनऊ का
हर पल किसी के आने का, इंतज़ार करना हमको रुला गया है, इज़हार लखनऊ का
जो हमको भूल बैठे, उन्हे बता दे कोई हम ख्वाब देखते है, हर बार लखनऊ का
किसको खबर की, हमने कैसे गुज़रे ये दिन छाया था रूह पर वो, गुलज़ार लखनऊ का
उनको खबर ही क्या हो, क्या गम-ए-लखनऊ है जिनको हुआ नहीं है, आजार लखनऊ का
कहने को आ गए हम, एक अजनबी शहर में लाये है साथ अपने, हम प्यार लखनऊ का
माना की इस चमन में, हरसु बहार ही है नाज़ुक यहाँ के गुल से हर खार लखनऊ का. A friend of mine had once shared this sher with me!!!Nice one na!!!