Thursday, June 22, 2017

अज्ञेय को समर्पित मेरी एक कविता

न रह गयी समझ मुझमे, लिखने का न मन ही करता है।
कभी थे यायावर हम भी, अब तो बस कल की ही चिंता है।

जो अग्नि थी भी कभी मुझमे, बुझी सी अब वो रहती है,
जलाया सोच कर ये था, स्याही इसी से बनती है।

किताबें हो गयीं वो कम कसम खाके जिसे सच बोलूँ,
सुनेगा कौन सच मेरा किताबें झूठ की जो खोलूँ?

कवि वो जा चुके हैं, सुन जिन्हें आँखें नम होती थीं,
कलम उठता नहीं मेरा खीझ! अब मेरी ये पीड़ा है।
कभी थे यायावर हम भी, अब तो बस कल की ही चिंता है।