चलता रहा सोच के पीछे है कोई खंजर लिए हुए,
मुड़ के देखा होता कम से कम धार तो उसकी।
डरता रहा ता-उम्र संभल के चलूँ ज़रा,
डूब रहा हूँ पैर के नीचे समन्दर लिए हुए।
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Posted by Ashish at 12:35 AM 0 comments
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