आवारा सी ज़िन्दगी, इस यायावर को नसीब है
दोस्त बहुत दूर हैं, दोस्ती क़रीब है |
कभी यहाँ कभी वहां भटकी सी लगती है,
मिली भी इक सही, पर ज़िन्दगी अजीब है |
न अपने संग हैं, न पराये दूर कहीं,
बस्ती बहुत दूर है, लगती सजीव है |
हर वक़्त पैमाइश है मेरे नज़रिये की,
लंगड़ों की दौड़ है, अंधे वज़ीर हैं |
Thursday, September 25, 2025
एक और सुनो
Tuesday, July 01, 2025
Wednesday, June 18, 2025
अब लिख रहे हैं तो एक और सुनो
शहरों में अक्सर घर बेच कर मकान लिया करते हैं,
कुत्ते बिल्लियों में इंसान लिया करते हैं।
रिश्ते तो बस अब हंसने पीने की ख्वाहिश है,
खंजर तो अब तोहफों में दिया करते हैं।
हम वहीँ हैं, बस दुनिया बदली सी लगती है,
आखिर चश्मे भी तो दुकानों से लिया करते हैं?
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