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Wednesday, June 18, 2025

अब लिख रहे हैं तो एक और सुनो

शहरों में अक्सर घर बेच कर मकान लिया करते हैं,
कुत्ते बिल्लियों में इंसान लिया करते हैं।  
रिश्ते तो बस अब हंसने पीने की ख्वाहिश है, 
खंजर तो अब तोहफों में दिया करते हैं।  
हम वहीँ हैं, बस दुनिया बदली सी लगती है,
आखिर चश्मे भी तो दुकानों से लिया करते हैं?

Wednesday, April 12, 2023

वही पुरानी कहानी

दो बेटे थे, पिता की  दुकान थी, बाजार में अच्छी चलती थी, सभी इर्षा करते थे| बेटों की शादियां हुईं, उनके बच्चे भी बड़े होने लगे| बहुएँ बाकी दुकानदारो के परिवार के साथ उठने बैठने लगीं| पिता की तबियत ख़राब रहने लगी| कभी बच्चों की पढ़ाई कभी तबियत की वजह से बेटे दुकान में ना बैठ पाते थे| आपस में झिकझिक होने लगी| घूमने के लिए रक्खा पैसा घर के कामों के लिए लगने लगा| बहुएँ कुछ अपने को छोटा महसूस करने लगीं, पार्टियों से दूरी रहने लग गयीं. बाकी दुकानदारों के परिवार का घर में आना जाना बढ़ गया| कुछ केवल छोटी बहु से मिलतीं तो कुछ बड़ी बहु से| चाय नाश्ता भी अलग बनने लगा| अब रात का खाना भी लोग अलग अलग समय करने लगे, अक्सर  अपने कमरे में ही| सोशल प्रेशर की वजह से दुकान अलग अलग कर दिया| भाई भाई अलग हो गए| दोनों परिवार अब अपने पिता से अमीर थे पर उनकी बाज़ार में साख चली गयी|

Motto of the story is - अपनी छोटी परेशानियों में अगर बाहर वाले इन्वॉल्व होंगे तो केवल घर ही टूटेगा| 




Friday, March 31, 2023

बस ऐसे ही

पुरानी दोस्ती की एक नई फोटो अक्सर
नई फोटो में कुछ पुराने लोग
नए संग में कुछ पुरानी यादें
पुरानी यादों से निकले कुछ नए ख्वाब
ख्वाबों की ताबीर को कुछ नए कदम
नए कदम, पर वही पुरानी सड़क
पुरानी सड़क में कुछ नए मील के पत्थर

Friday, February 24, 2023

बस ऐसे ही

बरसाती पानी से हैं कुछ, फूली फूली दीवारेँ 

खिड़की कम हैं परदे ज्यादा, बिछी हुई हैं अख़बारें 

पथरीली आँखों के पीछे छिपे हुए हैं सपनो सी,

शब्दकोष में बिछड़ गए हैं उम्मीदों की बौछारें |

 

कहना जो है मालूम सबको, जो बैठे जो सुनते हैं 

वो ना पूछें, जो सोचा है, खिंची आँखों की तलवारें 

ये घर है, है वही पुराना, समय है केवल बदला सा,

अपने अपने व्यूह में फँस कर अभिमन्यु है थक हारे|



Monday, December 19, 2022

एक और सुनो

एक मनुष्य था उसकी आँखें थीं
कुछ  सपने थे कुछ साहस था
कुछ कदम थे उसको चलने,
कभी धुप रही कभी पावस था|  


जीवन भट्टी में झोंक दिया,
तप कर, निखर के आने को
सोना था या पानी भाप बना,
कुछ करने का दुस्साहस था| 


कुछ लोग मिले कुछ बिछड़े भी,
कोई संग चला, कोई नाविक था
अपना अपना एक स्वर्ग बना
दोनों बाहों में भरता था| 


जब आँख खुली तो सपने थे
कुछ टूटे, कुछ अँगारों में,
पर अब भी देख सकता था वो,
उस अंतर्मन की आँखें थीं,
वो मनुष्य था उसकी आँखें थी| 

 



Saturday, September 17, 2022

एक और शेर

समय में पीछे ना जाकर, आज तेरे दिल में आना है
समझ तो ये सकूँ आखिर, नजरिया है, या बहाना है?
मेरे इलज़ाम सर पर है की मैंने आँख न खोली,
ये कैसे कह दूँ मैं तुझको, मुझे सागर छिपाना है

Thursday, May 19, 2022

एक और सुनो


खुदा के नाम पर हमें लूटते रहे
ज़र्रे ज़र्रे में था, हम बस ढूंढते रहे 

बिछायी ज़िन्दगी यूँ कि हम फैलते दिखें,
सिमट से रह गए हैं वक़्त, हम बस रूठते रहे

 

Tuesday, March 29, 2022

इस बार एक कहानी

दो लोग अपने प्यारे घोड़े पर बैठ कर अपने गॉव जा रहे थे, तभी उनको एक नदी दिखाई दी| नदी में पानी का बहाव तेज़ था और जाना उस पार था, बाढ़ की वजह से पानी भी चढ़ा हुआ था| दोनों को एक छोटी सी नाव दिखाई दी, वहीँ दो बड़े बड़े पतवार भी थे| उन्होंने विमर्श किया, छोटी नाव में घोड़ा नहीं आ पाएगा पर वो दोनों बैठ जायेंगे, क्योंकि घोड़े को तैरना आता है, पर बहाव की वजह से कहीं बह ना जाए इसलिए उसकी लगाम नाव में बाँध देंगे।

नदी के मगरमच्छ ने देख लिया घोड़े को उतरते हुए, पर पतवार देख कर पास आने की हिम्मत नहीं जुटा पाया| उसने जुगत लगाया - देखो दोनों इंसानो को, कितना बुरा व्यवहार मेरे जैसे जानवरों पर करते हैं, बेचारे घोड़े को बाँध कर पानी के बहाव के विपरीत दिशा में खींच के ले जा रहे हैं| अगर लगाम हटा दें तो घोड़ा अपने आप ही पानी के सहारे जल्दी से किनारे पर आ जायेगा, ये इंसान बस केवल अपने गांव जाना चाहते हैं, चाहे घोड़े को कितना ही कष्ट हो जाए|

घोड़ा सोच में पड़ गया, बात तो मगरमच्छ ने सही कही है, लगाम की वजह से मैं आज़ादी के साथ तैर नहीं पा रहा हूँ|  तभी एक छोटी मछली ने घोड़े से कहा - इस मगरमच्छ ने इस नदी की सारी मछलियों को खा लिया है, मैं भी सोचती हूँ, मगर के साथ एक नदी से तो अच्छा था लगाम के साथ इंसानो के साथ रहती| तभी एक भीगा भीगा तोता घोड़े के पीठ पर आ कर बैठ गया - अरे मैं अभी इंसानो की क़ैद से छूट कर आया हूँ, अब तो मेरी हालत ये है की मैं कायदे से उड़ भी नहीं पा रहा हूँ, काश मैं मछली होता तो कम से कम मुझे पानी से डर तो न लगता

,मगरमच्छ घोड़े के साथ उसको परामर्श देने वाले दो और जानवरो को देख कर पीछा करना छोड़ दिया  और दूर चला  गया, उसको दूर जाता देख, मछली जल्दी से अपने खोह में चली गयी, और तोते ने इंसानो को इतने पास देख कर उड़ कर पेड़ में बैठ गया|  तब तक किनारा भी आ चुका था|

Thursday, August 21, 2014

Atal aapko Naman (अटल आपको नमन)

बोलने भर से कोई शाषक नहीं होता, 
काम खुद में ही इक वाचक नहीं होता।
बादल तो हर बार निकलते हैं,

भीगने भर से कोई चातक नहीं होता॥


Sunday, June 26, 2011

Has Hindi Literature died after Agyeya? Or not!

Its ironic to write about Hindi literature in English. But if your sentiments are not publicly searchable in Google then I guess they do not exist, times have changed. If there were no Jai Shankar Prasad, Premchand or Mahadevi Verma Hindi would still have only be known for Tulsi, Sur and Kabir. But after this era as time got shorter and shorter new literature started to find its place more on podiums than in books and even lesser in class rooms. Hasya Kavi Sammelans became forefront channels to spread what they thought was Hindi. Poems became story telling that has little to no lifetime beyond the relevancy of the story itself. The conditions of writers fared not so bad some even turned out to be huge commercial success, thanks to the Bollywood and Television. Now some of the same very writers question why Hindi should be easier, I guess they are the ones who could find their roots in novels sold on the Railways kiosks. So where is this language? Like many other non-English international languages it does find challenging to keep up. The most dangerous is lack of quality Writers who can express today's challenges in a timeless manner. Aloofness from Government and mid to poor financial backing from India's Hindi belt are also some contributing factors. मंचीय कवियों पर Doctorate हो रहे हैं। चुटकुले लिखने वाले आज के साहित्यकार बन बैठे हैं। बस अब तो यही कह सकते हैं:

न रह गयी समझ मुझमे, न लिखने का मन ही करता है।
कभी थे यायावर हम भी, अब तो बस कल की ही चिंता है।
जो अग्नि थी भी कभी मुझमे, बुझी सी अब वो रहती है,
जलाया सोच कर ये था कि स्याही इसी से बनती है।
किताबें हो गयीं वो कम कसम खाके जिसे सच बोलूँ,
सुनेगा कौन सच मेरा किताबें झूठ की जो खोलूँ?
कवि वो जा चुके हैं सुन जिन्हें आँखें नम होती थीं,
कलम उठता नहीं मेरा खीझ अब मेरी ये पीड़ा है।
कभी थे यायावर हम भी, अब तो बस कल की ही चिंता है।