शहरों में अक्सर घर बेच कर मकान लिया करते हैं,
कुत्ते बिल्लियों में इंसान लिया करते हैं।
रिश्ते तो बस अब हंसने पीने की ख्वाहिश है,
खंजर तो अब तोहफों में दिया करते हैं।
हम वहीँ हैं, बस दुनिया बदली सी लगती है,
आखिर चश्मे भी तो दुकानों से लिया करते हैं?
Wednesday, June 18, 2025
अब लिख रहे हैं तो एक और सुनो
Tuesday, June 17, 2025
Thursday, September 19, 2024
चिट्ठी जिज्जी को
सब रोते हैं तुम्हारे जाने के बाद
छुप छुप कर, मैं भी
फूट ना पड़ें, इसलिए बात नहीं करते
पापा भी रोते थे, छुप छुप कर
कभी सामने नहीं
अब पापा भी नहीं हैं
मिली होगी ना?
क्या कहते हो एक दुसरे से?
गुस्सा करती हो? अभी भी?
मुझ पर क्यों नहीं किया?
मतलबी क्यों नहीं थी तुम?
मेरी तरह, छुप छुप कर?
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Ashish
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8:21 PM
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Sunday, April 30, 2023
Wednesday, April 12, 2023
वही पुरानी कहानी
दो बेटे थे, पिता की दुकान थी, बाजार में अच्छी चलती थी, सभी इर्षा करते
थे| बेटों की शादियां हुईं, उनके बच्चे भी बड़े होने लगे| बहुएँ बाकी
दुकानदारो के परिवार के साथ उठने बैठने लगीं| पिता की तबियत ख़राब रहने लगी|
कभी बच्चों की पढ़ाई कभी तबियत की वजह से बेटे दुकान में ना बैठ पाते थे|
आपस में झिकझिक होने लगी| घूमने के लिए रक्खा पैसा घर के कामों के लिए लगने
लगा| बहुएँ कुछ अपने को छोटा महसूस करने लगीं, पार्टियों से दूरी रहने लग
गयीं. बाकी दुकानदारों के परिवार का घर में आना जाना बढ़ गया| कुछ केवल छोटी
बहु से मिलतीं तो कुछ बड़ी बहु से| चाय नाश्ता भी अलग बनने लगा| अब रात का
खाना भी लोग अलग अलग समय करने लगे, अक्सर अपने कमरे में ही| सोशल प्रेशर
की वजह से दुकान अलग अलग कर दिया| भाई भाई अलग हो गए| दोनों परिवार अब अपने
पिता से अमीर थे पर उनकी बाज़ार में साख चली गयी|
Motto of the story is - अपनी छोटी परेशानियों में अगर बाहर वाले इन्वॉल्व होंगे तो केवल घर ही टूटेगा|
Posted by
Ashish
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10:37 AM
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